विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए

अमेरिकी डॉलर को रौंद रही रूस-चीन की स्ट्रैटजी: पुतिन ने सस्ता तेल बेचा, जिनपिंग ने सस्ता कर्ज बांटा; भारत भी अहम किरदार
24 फरवरी को यूक्रेन पर हमला करते ही रूस पर प्रतिबंधों की बाढ़ आ गई। अमेरिकी डॉलर में कारोबार न कर पाने का संकट खड़ा हो गया। रूसी करेंसी रूबल की वैल्यू धड़ाम हो गई। रूस की इकोनॉमी तबाह होने की भविष्यवाणियां होने लगीं, लेकिन पुतिन तो जैसे इसी मौके के इंतजार में थे। उन्होंने जिनपिंग के साथ एक ऐसी स्ट्रैटजी को एक्टिवेट कर दिया, जिसकी तैयारी दोनों पिछले कई सालों से कर रहे थे। ये स्ट्रैटजी दुनिया से अमेरिका डॉलर के दबदबे को खत्म कर सकती है।
भास्कर एक्सप्लेनर में हम रूस-चीन की उसी स्ट्रैटजी को आसान भाषा में जानेंगे, लेकिन उससे पहले 2 सवालों के जवाब जान लेना जरूरी है.
सवाल- 1: अमेरिकी डॉलर दुनिया की सबसे मजबूत करेंसी कैसे बन गई?
जवाबः 1944 से पहले तक ज्यादातर देश अपनी मुद्रा को सोने के मूल्य के आधार पर तय करते थे। यानी उस देश की सरकार के पास सोने का जितना भंडार है, बस उतनी ही मूल्य की करेंसी जारी करते थे।
1944 में न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स में दुनिया के विकसित देश मिले और उन्होंने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर यानी करेंसी एक्सचेंज रेट को तय किया, क्योंकि उस वक्त अमेरिका के पास सबसे ज्यादा सोने का भंडार था।
इसका असर एक छोटे से उदाहरण से समझिए। मान लीजिए भारत को पाकिस्तान की करेंसी पर भरोसा नहीं है। वो उससे डॉलर में कारोबार कर सकता था, क्योंकि उसे पता था कि अमेरिकी डॉलर डूबेगा नहीं और जरूरत पड़ने पर अमेरिका डॉलर के बदले सोना दे देगा।
ये व्यवस्था करीब 3 दशक चली। 1970 की शुरुआत में कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू कर दी। ये देश अमेरिका को विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए डॉलर देते और उसके बदले में सोना लेते थे। इससे अमेरिका का स्वर्ण भंडार खत्म होने लगा।
1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया। इसके बावजूद देशों ने डॉलर में लेन-देन जारी रखा, क्योंकि तब तक डॉलर दुनिया की सबसे सुरक्षित मुद्रा बन चुका था।
डॉलर की मजबूती की एक बड़ी वजह थी। दरअसल 1945 में अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सऊदी के साथ एक करार किया। करार की शर्त ये थी कि उसकी सुरक्षा अमेरिका करेगा और बदले में सऊदी सिर्फ डॉलर में तेल बेचेगा। यानी अगर देशों को तेल खरीदना है, तो उनके पास डॉलर होना जरूरी है।
फिलहाल दुनिया का 80% व्यापार डॉलर में होता है और दुनिया का करीब 60% विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर में है।
सवाल- 2: डॉलर की पावर के दम पर अमेरिका बैठे-बिठाए कैसे अरबों कमाता है?
जवाबः SWIFT नेटवर्क के दम पर अमेरिका बैठे-बिठाए अरबों कमाता है। मान लीजिए अडाणी ग्रुप को पाकिस्तान के किसी कारोबारी से 10 हजार डॉलर की सूरजमुखी खरीदना है। SWIFT नेटवर्क के जरिए ये ट्रांजैक्शन 5 स्टेप में होगा…
स्टेप-1: सबसे पहले अडाणी ग्रुप अपने भारतीय बैंक को 10 हजार डॉलर के बराबर भारतीय रुपए भेजेगा।
स्टेप-2: भारतीय बैंकों का अमेरिकी बैंक में खाता होता है। वहां से वो डॉलर में एक्सचेंज करके पेमेंट करने को कहेंगे।
स्टेप-3: भारतीय खाते वाला अमेरिकी बैंक दूसरे पाकिस्तानी खाते वाले अमेरिकी बैंक में पैसा ट्रांसफर करेगा।
स्टेप-4: दूसरा अमेरिकी बैंक पाकिस्तानी बैंक में पैसे ट्रांसफर कर देगा।
स्टेप-5: पाकिस्तानी बैंक से कारोबारी 10 हजार डॉलर के बराबर पाकिस्तानी रुपए निकाल सकता है।
SWIFT नेटवर्क में फिलहाल 200 से ज्यादा देशों के 11,000 बैंक शामिल हैं। जो अमेरिकी बैंकों में अपना विदेशी मुद्रा भंडार रखते हैं। अब सारा पैसा तो व्यापार में लगा नहीं होता, इसलिए देश अपने एक्स्ट्रा पैसे को अमेरिकी बॉन्ड में लगा देते हैं, जिससे कुछ ब्याज मिलता रहे। सभी देशों को मिलाकर ये पैसा करीब 7 ट्रिलियन डॉलर है। यानी भारत की इकोनॉमी से भी दोगुना ज्यादा। इस पैसे का इस्तेमाल अमेरिका अपनी ग्रोथ में करता है।
अब आते हैं अपने प्रमुख सवाल पर। यानी डॉलर के दबदबे को कम करने के लिए चीन-रूस की स्ट्रैटजी क्या है? सबसे पहले बात रूस की.
रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तेल और गैस का उत्पादन करने वाला देश है और उसके सबसे बड़े खरीदार यूरोपीय देश हैं। रूस विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए ने प्राकृतिक गैस खरीदने वाले यूरोपीय संघ के देशों से कहा कि वो डॉलर या यूरो के बजाय बिल का भुगतान रूबल में करें।
यानी जो देश पहले रूस से गैस खरीदने के लिए अमेरिकी बैंक में डॉलर रिजर्व रखते थे, उन्हें अब रूसी सेंट्रल बैंक में रूबल रिजर्व रखना पड़ रहा है। इसी तरह बाकी चीजों के निर्यात के लिए भी रूस अनफ्रेंडली देशों से रूबल में पेमेंट करने की मांग कर रहा है।
जून 2022 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने BRICS देशों की करेंसी का एक नया इंटरनेशनल रिजर्व बनाने की बात कही थी। पुतिन के इस प्रपोजल पर फिलहाल विचार किया जा रहा है। BRICS देशों में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका हैं।
डॉलर को युआन से रिप्लेस करने के लिए चीन की कोशिशें
SWIFT की ही तरह चीन के सेंट्रल बैंक पीपल्स बैंक ऑफ चाइना ने CIPS नाम का सिस्टम बनाया है। इस पेमेंट सिस्टम से करीब 103 देशों के 1300 बैंक जुड़ चुके हैं। पिछले साल इस सिस्टम के जरिए 80 ट्रिलियन युआन (चीन की करेंसी) से ज्यादा का ट्रांजैक्शन हुआ। जनवरी 2022 में युआन दुनिया में चौथी सबसे ज्यादा ट्रांजैक्शन वाली करेंसी बन गई। उससे आगे सिर्फ US डॉलर, यूरो और ब्रिटिश पाउंड थे।
युआन रिजर्व को बढ़ावा देने के लिए चीन ने 40 से ज्यादा देशों के साथ करेंसी स्वैप एग्रीमेंट किया है। इस एग्रीमेंट के तहत 2 देशों को व्यापार करने कि लिए हर बार SWIFT सिस्टम की जरूरत नहीं। एक फिक्स अमाउंट का ट्रेड वो देश अपनी करेंसी में कर सकते हैं।
इसके अलावा सऊदी अरब से भी युआन में तेल बेचने की बात हो रही है। यानी जो देश तेल खरीदने के लिए अभी डॉलर रिजर्व रखते हैं, वो युआन में रिजर्व रखेंगे। इससे डॉलर का दबदबा कम होगा।
रूस-चीन की इस कोशिश में भारत का किरदार
डॉलर के दबदबे को कम करने की चीन-रूस की कोशिश में भारत भी एक किरदार निभा रहा है। यूक्रेन जंग शुरू होने के बाद भारत और रूस ने डॉलर को दरकिनार करते हुए रुपए और रूबल में आपसी कारोबार शुरू किया।
14 सितंबर को फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन के प्रेसिडेंट ए. शक्तिवेल ने कहा है कि भारत ने रूस के साथ रुपए में कारोबार के लिए SBI को आथोराइज किया है। 7 सितंबर को रिजर्व बैंक और फाइनेंस मिनिस्ट्री ने बैंक से इंपोर्ट और एक्सपोर्ट ट्रांजैक्शन को रुपए विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए में करने का बढ़ावा देने की बात कही थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक इससे रुपए को मजबूती मिलेगी।
आर्टिकल में आगे बढ़ने से पहले एक पोल पर हम आपकी राय जानना चाहते हैं.
आगे का रास्ता.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि डॉलर के दबदबे को कम करने के लिए चीन और रूस की कोशिशें नुकसान तो पहुंचा रहीं, लेकिन बड़ा इम्पैक्ट आने में काफी वक्त लगेगा। डॉलर के खिलाफ इस अभियान में रूस और चीन को दूसरे देशों के साथ की दरकार है।
हालांकि, एक्सपर्ट्स युआन को डॉलर की जगह फिट नहीं पाते। इसकी सबसे बड़ी वजह चीन की सरकार है। यहां लोकतंत्र नहीं है, जिस वजह से इंस्टीट्यूशन में ट्रांसपेरेंसी भी नहीं है। कोई भी देश ऐसी किसी करेंसी को रिजर्व नहीं रखना चाहेगा, जिसके डूबने का खतरा ज्यादा हो।
References…
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डेली न्यूज़
बीते कुछ महीनों में कोरोनावायरस (COVID-19) महामारी के प्रसार के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। ऐसे में इस प्रभाव का सही और तुलनात्मक अनुमान लगाना नीति निर्माताओं के लिये काफी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस संबंध में रुपए की विनिमय दर को भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का अनुमान लगाने के लिये एक उपयुक्त मापदंड के रूप में देखा जा सकता है।
श्रीलंका की बदहाली के बाद इन 13 देशों पर भी ख़तरे का बादल
श्रीलंका को कई बार विदेशी क़र्ज़ चुकाने के लिए डेडलाइन दी गई लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार के ख़ाली होने से वह क़र्ज़ नहीं चुका पाया और आख़िर में उसने ख़ुद को डिफॉल्टर घोषित कर दिया.
श्रीलंका की जनता सड़कों पर उग्र प्रदर्शन कर रही है. राष्ट्रपति विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए देश छोड़कर भाग चुके हैं. पेट्रोल पंप पर तेल के लिए लंबी लाइनें लगी हुई हैं. दवा, खाने-पीने के सामान के दाम कई गुणा बढ़ गए हैं.
जब कोई देश विदेशी क़र्ज़ समय से नहीं चुका पाता यानी उसके पास इतनी विदेशी मुद्रा नहीं बचती कि वो क़र्ज़ अदा कर पाए तो वह डिफॉल्टर हो जाता है. ऐसा ही श्रीलंका के मामले में हुआ. ढहते हुए श्रीलंका को पूरी दुनिया देख रही है. लेकिन अर्थव्यवस्था तबाह होने की कहानी केवल श्रीलंका की नहीं है.
लातिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना साल 2000 से 2020 के बीच दो बार डिफ़ॉल्टर हो चुका है. 2012 में ग्रीस डिफ़ॉल्टर बना. 1998 में रूस, विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए 2003 में उरुग्वे, 2005 में डोमिनिकन रिपब्लिक और 2001 में इक्वेडोर.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, इस साल श्रीलंका के अलावा लेबनान, रूस, सूरीनाम और जाम्बिया समय से क़र्ज़ नहीं चुका पाए हैं और डिफॉल्टर की श्रेणी आ गए.
वहीं बेलारूस भी इसी कगार पर है और कम से कम एक दर्जन देशों पर ख़तरा मंडरा रहा है. ऐसे में बात सबसे पहले भारत के पड़ोसी देश म्यांमार की.
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मुश्किल में म्यांमार
दो देश,दो शख़्सियतें और ढेर सारी बातें. आज़ादी और बँटवारे के 75 साल. सीमा पार संवाद.
म्यांमार के स्थानीय मीडिया के अनुसार, विदेशी मुद्रा भंडार को नियंत्रण में लाने के लिए म्यांमार के केंद्रीय बैंक ने स्थानीय कंपनियों और बैंकों के लिए आदेश जारी किया है. इस आदेश में विदेशी क़र्ज़ के भुगतान को स्थगित करने और देर से भुगतान करने के लिए कहा गया है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक, न्यूज़ एजेंसी म्यांमार नाउ के अनुसार, केंद्रीय बैंक ने 13 जुलाई को ये आदेश जारी किया है, जो सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहा है. इस दस्तावेज़ को रॉयटर्स स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं कर पाया है.
केंद्रीय बैंक के बयान में कहा गया है, "विदेशी मुद्रा क़ानून और विदेशी मुद्रा प्रबंधन नियमों के अनुसार, मूल रक़म और ब्याज की रक़म सहित विदेशी क़र्ज़ के भुगतान को निलंबित कर दिया जाना चाहिए. इसके साथ ही लाइसेंस प्राप्त बैंकों को अपने ग्राहकों के साथ भुगतान को लेकर फिर से व्यवस्था करनी चाहिए."
इस संबंध में जब केंद्रीय बैंक के अधिकारियों को फ़ोन किया गया तो उन्होंने कॉल का कोई जवाब नहीं दिया.
डॉलर के मुक़ाबले म्यांमार की मुद्रा क्यात की गिरावट ने देश में पहले से गहराए संकट को और बढ़ा दिया है. तेल और खाने पीने की क़ीमतों में भारी उछाल आया है. पिछले साल सेना ने म्यांमार में तख्तापलट कर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था, जिसने एक दशक के राजनीतिक और आर्थिक सुधारों पर ब्रेक लगाने का काम किया है.
EXPLAINER: डॉलर क्यों महंगा हो रहा है और रुपया समेत दुनियाभर की करेंसी फिसल रही है?
EXPLAINER: अभी की महंगाई में डिमांड और सप्लाई दोनों का रोल है. डॉलर का प्रदर्शन इसलिए मजबूत हो रहा है कि, क्योंकि दुनियाभर की इकोनॉमी की हालत खराब है. वहां की करेंसी की वैल्यु भी घट रही है. डॉलर को इससे डबल बेनिफिट मिल रहा है.
पूरी दुनिया की करेंसी इस समय दबाव में है. एकमात्र अमेरिकन डॉलर मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपया 82 के स्तर को पार कर चुका है. अलग-अलग सर्वे के मुताबिक, यह 83 से 84 के स्तर तक फिसल सकता है. इस साल अब तक रुपए में 10 फीसदी की गिरावट आ चुकी है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि दुनियाभर की करेंसी फिसल रही है, जबकि डॉलर लगातार मजबूत हो रहा है. Credence Wealth Advisors के फाउंडर कीर्तन ए शाह की मदद से इस आर्टिकल में यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि दुनिया की दूसरी करेंसी के मुकाबले रुपए का प्रदर्शन कितना मजबूत या कमजोर है.
कोरोना महामारी से हुई इसकी शुरुआत
इसकी शुरुआत साल 2020 में हुआ जब कोरोना वायरस ने दस्तक दिया. महामारी के दौरान हर तरह की आर्थिक गतिविधि रोक दी गई जिसके कारण जीडीपी में गिरावट आई. इसके अलावा बड़े पैमाने पर रोजगार गए और कंपनियों को भारी नुकसान हुआ. आर्थिक गतिविधियों में सुधार के मकसद से दुनियाभर के सेंट्रल बैंकों ने इंट्रेस्ट रेट में कटौती की और लिक्विडिटी बढ़ाने पर फोकस किया. डेवलप्ड इकोनॉमी में इंट्रेस्ट विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए रेट घटकर करीब जीरो पर आ गया है, जबकि रिजर्व बैंक ने रेपो रेट घटाकर 4 फीसदी तक कर दिया था.
शेयर बाजार की तरफ गया एक्सेस लिक्विडिटी
कर्ज मिलना आसान हो गया और हर किसी के हाथ में पैसे आ गए. कोरोना महामारी के दौरान शेयर बाजार में जो भारी गिरावट आई थी वह अब लोगों का फेवरेट डेस्टिनेशन बन गया. लिक्विडिटी बढ़ने के बाद सारा पैसा शेयर बाजार और कमोडिटी की तरफ जाने लगा और दोनों रिकॉर्ड हाई पर पहुंच गया. जब इंट्रेस्ट रेट घटता है तो बॉन्ड यील्ड भी घटने लगता है.
डिमांड आधारित है यह महंगाई
यील्ड घट गया, स्टॉक मार्केट और कमोडिटी प्राइस आसमान पर पहुंच गया जिसके कारण महंगाई बढ़ गई. इसे डिमांड आधारित महंगाई कहते हैं. यह ऐसी महंगाई होती है जिसमें एक्सेस डिमांड का सबसे बड़ा रोल होता है. चीन दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरर है. उसने कोरोना पर कंट्रोल करने के लिए लॉकडाउन को लंबे समय तक गंभीरता से लागू किया. इसस सप्लाई की समस्या पैदा हो गई. इससे महंगाई को सपोर्ट मिला. फरवरी 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया जिसके कारण कच्चा तेल आसमान पर पहुंच गया. इससे महंगाई की आग को और हवा मिली. यूरोप में गैस की किल्लत पैदा हो गई जिससे भी महंगाई को सपोर्ट मिला.
सप्लाई साइड की समस्या से भी महंगाई
कुल मिलाकर अभी की महंगाई डिमांड आधारित और यूक्रेन क्राइसिस के कारण सप्लाई आधारित भी है. महंगाई का हाल ये है कि अमेरिका और इंग्लैंड में इंफ्लेशन टार्गेट 2 फीसदी है जो 9-10 फीसदी पर पहुंच गया है. रिजर्व बैंक ने मॉनिटरी पॉलिसी पर नियंत्रण बनाए रखा जिसके कारण 6 फीसदी की महंगाई का लक्ष्य 7 फीसदी के नजदीक है.
मांग में कमी के लिए इंट्रेस्ट रेट में बढ़ोतरी
महंगाई को काबू में लाने के लिए फेडरल रिजर्व, बैंक ऑफ इंग्लैंड, यूरोपियन सेंट्रल बैंक समेत दुनिया के सभी सेंट्रल बैंक इंट्रेस्ट रेट में भारी बढ़ोतरी कर रहे हैं जिससे मांग में कमी आए. इंट्रेस्ट रेट में बढ़ोतरी के कारण फिक्स्ड इनकम के प्रति आकर्षण बढ़ा और शेयर बाजार के प्रति आकर्षण घटा है. इसलिए दुनियाभर के शेयर बाजार में गिरावट है और बॉन्ड यील्ड उछल रहा है.
महंगाई से करेंसी की क्षमता घट जाती है
महंगाई बढ़ने से करेंसी की खरीद क्षमता घट जाती है. डॉलर के मुकाबले दुनिया की तमाम करेंसी में गिरावट आई है. जब कोई सेंट्रल बैंक इंट्रेस्ट रेट बढ़ाता है जो इसका मतलब होता है कि वहां की इकोनॉमी मजबूत स्थिति में है. इकोनॉमी को लेकर मजबूती के संकेत मिलने पर उस देश की करेंसी भी मजबूत हो जाती है. एक्सपर्ट का कहना है कि डॉलर का प्रदर्शन ज्यादा मजबूत दिख रहा है, क्योंकि कोरोना के बाद दुनिया विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए की तमाम इकोनॉमी की हालत तो खराब है ही और उनकी करेंसी की वैल्यु भी घटी है. इसके कारण डॉलर को डबल मजबूती मिल रही है.
डॉलर हुआ मजबूत, रुपया 12 पैसे टूटा
ग्रीस बेलआउट पर सहमती और ईरान के साथ पी-5+1 देशों (अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी) के बीच समझौते के बीच रुपया अपनी मजबूती खोता दिख रहा हैं. रुपया बुधवार के शुआती कारोबार में ही टूट गया.
aajtak.in
- मुंबई,
- 16 जुलाई 2015,
- (अपडेटेड 16 जुलाई 2015, 1:13 PM IST)
ग्रीस बेलआउट पर सहमती और ईरान के साथ पी-5+1 देशों (अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी) के बीच समझौते के बीच रुपया अपनी मजबूती खोता दिख रहा हैं. रुपया गुरुवार के शुरुआती कारोबार में ही टूट गया.
हालत-ए-रुपया
विदेशी मुद्रा बाजार में शुरआती कारोबार के दौरान 12 पैसे टूटकर 63.53 पर पहुंच गया. वहीं बीते कल रूपये भी की चाल थोड़ी सुस्त दिखी और रुपया दो पैसे टूट कर 63.41 पर बंद हुआ था.
क्यों गिरा रुपया?
विदेशी मुद्रा कारोबारियों का कहना है कि फेडरल रिजर्व की प्रमुख जेनेट येलेन द्वारा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के मद्देनजर ब्याज दरों विदेशी मुद्रा क्यू एंड ए में बढ़ोतरी की बात दोहराने से डॉलर को मजबूती मिली. वहीं डॉलर कि मजबूती के साथ ही आयातकों की ओर से डॉलर की मांग बढ़ने ने रूपये पर जबरदस्त दबाव बनाने का काम किया.
अभी गनीमत है
मार्केट एक्सपर्ट्स का कहना हैं कि डॉलर जिस तरह मजबूत हो रहा हैं उस तरह से रूपये में गिरावट नहीं देखने को मिल रही है. शेयर बाजार में दिख रही तेजी और बढ़ते विदेशी निवेश ने रूपये की कीमतों में हल्की लगाम लगा रखी है.